थारु राष्ट्रिय दैनिक
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[ थारु सम्बत १२ बैशाख २६४८, बुध ]
[ वि.सं १२ बैशाख २०८१, बुधबार ]
[ 24 Apr 2024, Wednesday ]
‘ बटकुहि ’

रिक्सह्वा बिरु

पहुरा | २२ कार्तिक २०७७, शनिबार
रिक्सह्वा बिरु

एकठो टालिमके सिलसिलामे धनगढी पुगल रहुँ । नाइट बसके याट्रा महि बिहान ९ बजे पुगैले रहे । लहा ढोके आराम करुँ कैहके सौंसटेल जिउहे बिस्टारामे ढल्कैक् डिनके २ बजे किल उठ्लुँ । डिनके गर्मि ओहे मेर रहे । बिना पंखा खोल्के सुटलमें पस्नाले लहाइल रहँु । बाहेर डवार ढ्यांग ढ्ंयाग बोल्टि रहे ।

फ्रेस हुइक लग फेन लहैलु । होटलेक भन्सम डुह्रि डाबेबेर होटल्या कहल, ‘चार फेरा बलाइ पठैलु, अपने नै बोल्लि टे कुछ हो टे ना गैल कैहके डवार ढक्ढक्वा गैल । ओहो अपने टे महा निंडगड्डर । हजुर खाना लगाउँ ?’ मै नै बोलके खालि ‘हाँ’ मे मुँरि टोकैलुँ ।

खाना भिट्टर नै छिरल । डुठाइ हस कर्लु ओ कोठम् पंखा खोल्के टिभि हेरे लग्लुँ । ना निंडाउ कैहके सचेट रहुँ । फेन आँख झम्के हस करटहे घरि हेर्लुु, सन्झक् ५ बज्टि रहे । सोंच्लु काल्ह बिहानिसे टालिममे व्यस्ट रहे परि । ढेर डिनके वाड धनगढी आइल बटुँ । यहाँक् बजारके नजारा हेरे परल ।
होटलसे बाहेर निकरलुँ । गेटेम एकठो रिक्सा ठह्रियाइल रहे । रिक्सम् बैठ्टि कलुँ– ‘क्याम्पस रोड ।’

रिक्सावाला कुछ डुर रिक्सा पुगाइल टे घेंचा घुमाके पुछल, ‘हुजर कौन सिलसिलामे यहाँ आइल बटि ना ?’

ओहो यि टे बिहानिक् रिक्सहवा रहे । जे महि बसपार्कसे होटलमे नन्ले रहे । बिहानके उहिसे कौनो बाटचिट नै हुइल रहे । सायड उ मोर अनुहार पह्रले रहे ओ मोर सुरटसे थारु जो बटाके थारुमेर बोल्कर्टि रहे । मै कुछ घरि रैहके उट्टर डेलुँ, ‘एकठो टालिममे आइल बटुँ ।’

उ महिसे फेन कुछ पुँछठ् कि अस्रा लग्लुँ । नै बोलल् । आव डगर कटाइक् लाग महि बोल्लुँ, ‘भैयक् नाउँ ?’

‘बिरबहादुर चौधरी । मने गाउँघरेम बिरु कहठाँ हजुर । बिरुक् रिक्सा कहबि टे सबकोइ जानठ ।’
‘यि टोहार आपन रिक्सा हो ?’

‘नाहि हजुर । जिन्गिम् रिक्सा कमैना पैसा जुटाइ नै सेक्गैल ।’

‘सन्झा पिके ओरवा डार ठुइबो । कहाँसे पैसा जुटि ।’

(मोर प्रस्नले उ एक फेरा फे घेँचा घुमाके महि हेरल । महि लागल, मै कौनो गलट आसंका टे ना कर्लु । मने मोर अनुमान सहि रहे ।

‘अपनेक अनुमान ठिक हो हजुर । मेहारु छोरल टबसे आउर जोर पिनाहा हो गैल बटुँ ।’

‘ओहो कसिक भगा मर्लो ? पम्प लगैना कर्रा परके टे ना हो ?’

उ एक फेरा खिसियाके हाँसे हस करल । ओ कहल, ‘यकर लम्मा कहानि बा हजुर अपनेक कबो फुर्सड मिलि टे सुनैम ।

रिक्सा गुरहि चोक पुग गैल रहे ।

‘आब कहोँर लैजाउँ हजुर ?’

डरअसल मै कौनो टोकल ठाउँके लग नै निक्रल रहुँ । खालि हावा खाइ निक्रल रहुँ । एक मन गुरहि चोकसे यहोरे रहल रोदन मेडिकल हलमे चन्द्रसिंहजिसे गफ लगाइ जाउँ कि कना रहे, मने मेडिकल हल बन्ड रहे । ओकर जवाफ स्वरुप कौनो टरफ इसारा करुइया रहुँ कि एकठो पसलसे मोटाघाटा मनैया हाँक पारल, ‘ओ लेखकजि, यहोर आइ ।’

मै रिक्सा छोरके इसारा करल मनैयक् ओर गैलु । उ महिसे गले लागल । जानो कि बर्सौसे मोर उहिसे जान पहिचान बा ।

‘कहोर नेंगटि टे लेखकजि ?’

‘अपनेक सहरके गल्लि नापटुँ ।’

‘उ टे डेख्टि बटुँ । अब्बे कहोर सम नेंगटि ?’

‘बस् ओइसे हावा खाइ निक्रल रहुँ ।’

‘चलि अब टे गँठगैल । अपन सहरमे मन परल लेखककहे हावा खाइ निक्रल अवस्ठम् भेटाके मै बहुट खुस हुइलुँ । आज केकरसँगे पिउँ कना सोच्टि रहुँ । आज अपने गजब पार्टनर मिलगैलि लेखकजि ।’

डाइ एक्के फेरम जाग गैलिस । ढेबरि सुँगैलिस । अंगना सम मोंकाओर्से ओजरार छिरल । डाइ फटफटैटि बाहेर निकर्लिस्, ‘असिन कठुँ अनगुट आइस छावा, अनगुट आइस । मोर बाट टे कुकरक् पाड । इहे ढंगे टे पटुहिइया घर छोरल ।’ डाइ अँगनक् एक पाँजर छुल्छुल्वाइ लग्लिस ।

उ रिक्साह्वाहे बलाइल, ‘ए बिरु यहाँ आ । का ओट्रा डुर ठिल्कल बटे ? जा, ठिक डुइ घन्टा पर्से हमार लेखकजिहे लेहे आइस । अब्बे डोसर पेसेन्जर खोज ।’

मै रिक्सा भाडा डेहक लग गोझु टक्टक्यइलुँ । मोटे कहल, ‘अरे लेखकजि । हमे्र कहाँ भागब जे । अब्बे फे डोस्रे यि रिक्सह्वा अइबे करि, टबे डेब भारा । छोरि भारा, वेन चलि भट्ठिम ।’

मै कुछ डुरसम रिक्सम बैठके धनगढी सहर कट्रा बरा आकार ले राखल कना हेर्ना उड्डेस्यसे होटलमेसे निक्रल रहुँ । यहाँ भट्ठिम् अन्जान युवकके फँसेटम् पर गैल रहुँ ।

–का पिइ लेखकजि ? रोयल स्टेग, भोड्का, वियर ?

(मै च्वाइल बटैना ढिला कर्लु ।)

–अरे, बिल मै टिरम । अपने चिन्टे ना करि । ओइसे फेन लेखकलोगनके् गोझु प्रायः खालि खालि रहठ ।

उ बिना पिवाइल महि टिबोली मारे लागल ।

–गर्मी बा । जुर जुर बियर पिइ । (मै कलुँ ।)

–ओहो हो । मोर मनक् बाट कहलि लेखकजि । काल्ह ककटेल हुइलक आज मुँरि टनटनैटि बा । मै फेन जुर जुर वियर पिना मुडमे रहुँ ।

(ऊ गिलास भरके टुवोर्ग एक्के फेरम स्वाट पारल । जानो कि बर्सौसे पियासल बा ।)

–लि लि लेखकजि, मै अघाला ले सेक्नुँ । अपने छुले नै हुइ । (अट्रा कहटि उ फेन डोस्रे गिलास स्वाट पारल । मै मने मने कलुँ । वाफ रे, इ मनैया हो कि टेंकि ?

–टे लेखकजि, धनगढी कौन सिलसिलम् पौलि डरलि ?

–महि हर अँख्रे लेखकजि, लेखकजि ना कहि । कौनो नाट लगाके बोल्कारि । महि अप्ठ्यार लागटा ।

(उँ मोर बाटले डिल खोल्के राच्छसि हाँसिले होटल ठक्र्वाइल । और टेबुलके मनै फेन उहि हेर्ना विवस हुइलाँ)

–अपने फेन हाँसि लगैठि लेखकजि । हम्रे डुइ लाइन कविटा बनाइ नै जन्ना मनै, अपने हर वाक्यमे कविटा जमा डेठि । अपनेन लेखक, कवि नै कहुँ टे किहि कहुँ । (ऊ फे लम्मा हाँसि हाँसल) खैर ठिक बा, अपनेन लेखक कनामे आपट्टि बा कलेसे डाजु कले ठिक परि । (एक घचि सुस्करके उ कहल) लि टे डाजु, आव डाजु भाइक नाट बनलमे चियर्स ।

उहे समयमे रिक्सह्वा बिरु होटलमे छिरल ।

युवक रिक्सह्वाहे घुरेर घुरेर हेरल । ओ घरि हेरटि कहल, ‘हम्रे जम्लक भख्खर टे एक घन्टा हुइटा । टै अब्बेहे आगैले रे बिरु ? जा आब घरि हेरके एक घन्टा बाड आइस । (ओकर ओर डुठाहा गिलास सक्र्वइटि) ले इहे कुल मिलि कैहके टे आइ ठुइबे, नै जाने हस् । (रिक्सह्वा गिलास उठाइक अन्खनाइ हस करठ) पि रे सारक । एक ट मोर जन्नि मोर डुठाहा खाइक मन नै करठ । सार टै महि भोंसरि जन्निक याड डेहाके टेन्सन ना डे । (रिक्सह्वा ओकर डुठाहा वियर स्वाट पारठ ओ बहि¥याइठ ।)
जे महि डारु पिवाइटेहे, उहिसेमै कहाँ भेट हुइल रहुँ ? उ महि लेखकके रुपमे कसिक जानठ ? मै समझ नै पाइटहुँ । भाइक नाउँ, घर कहाँ ? कैहके पुँछलेसे ना हो रिसा जाए । असिक अन्जान मनैनसे पिएृ बैठल कारन मोर मन चैनार नै रहे ।

–ओहोहो, टप्की जनवरीमे भादा महोट्सवमे डाजुक नन्सटप सायरि सुनके टे मोर मुहँ खुलाके खुला रैह गैल रहे ।

ओकर इ जवाफसे उ महि भादा महोट्सवमे भेट हुइल पटा चलल । हो जरुर, भादा महोट्सवमे मै कुछ संघरियन संगे गैल रहुँ । आयोजकलोगनके कमजोरिके कारन साहिट्यिक कार्यक्रम पुरा फिक्कल हो गैल रहे । बस् सन्झाके महोट्सवके एक झोपरिम् जाँरक झोर, मुसक, बयरिक् चटनि सँगे मुक्तकके बौछार बर्सल रहे । टब्बे डर्जनसे ढेर युवालोग महि घेरले रहिँट । अपन अपन नाउँमे मुक्तक बनाइ कहिँट, ओ वा वा….कैहके ठिठ्ठा मारिँट ।

लेकिन भादा महोट्सवमे भादक मनै अपनेक सम्मान नै कैलाँ लेखकजि । सरि सरि डाजुजि । अपने हिरा मनैन् एकठो गोंगैर किराके रुपमे लेलाँ । (आब उहि डारु लाग गैल रहिस । ठिके उहे बेला ओकर चिन्हल एक बगाल लर्का घुस्लाँ होटलमे । ओ ओइनसँगे अल्माइल । टब्बेहे उहे रिक्सह्वा बिरु झुकमुकसे बिल्गाइल । मै सरासर आके रिक्सम बैठ्लुँ । घरि हेर्लु । राटके ९ बज गैल रहे ।

–चल सिढे मोर सुट्ना होटल डिभोटीमे ।

–अपने टे बरा लेखक हुइ । बन्डाले मालिक लेखक लेखक कैहके कहलाँ टे बल्ले जन्लुँ । (आब पटा चलल्, जौन युवक् महि डारु पिवाइल ओकर नाउँ बन्डाले रहिस) लेखकजि डिनके मै कले रहुँ कि कब्बु मौका परि टे अपन कहानि सनुैम । फुर्सड बा टे सुनि । मोर खिस्साके छोटओट अंस अपनेक लेखनमे ठाउँ पाइठ कि ?

फुरहन्ने कना हो कलेसे बिरु रिक्सह्वा एक्के सासेम मोर मनक बाट कले रहे । लावा ठाउँ, लावा पात्र, ओइनके सुखडुखके कहानिमे ठोरबहुट कल्पना खस्मोर डेउ । बन गैल असलि कहानि ।

–टोर घर कट्रा डुर बा बिरु ?

–ठौंरहि बा हजुर । एक किलो मिटर आगे मनेहरा सिबिर ।

–चल टे चल, टोर घर ।

रिक्सक् रफ्टार एकफाले टेज हुइल । मनेहरा सिविरके कुक्कुर भुक्टि रहिँट । सिविरमे लाइन जो नै जोरल रहे कि लोडसेडिङ रहे, पुरापुर चुक घोप्ट्याइल हस अन्ढार रहे ।

मुख्य सडकसे रिक्सम उँटरके कुछ घरि नेंगे परल ।

–टोर घरेम के के बटाँ बिरु ?

–बुह्राइल डाइ बा हजुर । ओ, डुइठो भटिज्वन् बटाँ । डाडु भौजि ओरै सिविरमे रहठाँ । एकठो छिनारि टे चलगैल ।

ओकर बोलिसे लागटेहे उ अपन जन्निक् कहानि बट्वइना आटुर बा । सुरुमे ओकर घरक डोंगिल , पाटिर कुकन्या फेन बरा जोरसे भुँख्लिस । ओकर बोल बिचारके टुरुन्ट चुपा गैलिस । ओ गोहराइल, ‘डाइ ?’

डाइ एक्के फेरम जाग गैलिस । ढेबरि सुँगैलिस । अंगना सम मोंकाओर्से ओजरार छिरल ।
डाइ फटफटैटि बाहेर निकर्लिस्, ‘असिन कठुँ अनगुट आइस छावा, अनगुट आइस । मोर बाट टे कुकरक् पाड । इहे ढंगे टे पटुहिइया घर छोरल ।’ डाइ अँगनक् एक पाँजर छुल्छुल्वाइ लग्लिस ।
उ रिसाइल, ‘डाइ फे, लाज ना सरम् । यहाँ बहुट डुरसे बरा लेखकजि हमार झोंपरिक डुह्रि डाबे आइल बटाँ । टै जुन ख्याल वाल बिना कैले ।’

ओसिन जानकारिले ओकर डाइ सायड मुट ठमैटि झपाटसे उठलिस । ओ डुनु हाँठ जोरके महि राम राम हजुर कलिस । डाइ बहरि बहर्लिस् । पटकि बिसैटि कलिस, ‘लेउ हजुर सर । हमार घर कमरा ओमरा नै हो । अस्टेमे कुल बैठो ।’

डाइ अपने बेंर्रिमे बैठ्टि कहलिस, ‘अरे बेरि टे टोरे भरिक लग बा । उहाँ सरहे का खवइबे ?’
–मै होटलेम खा लेम डाइ । अपन छावाहे खवाइ ।

मोर बोलिले उ डोसर फेरा लजैलि । ओ कहलि, ‘ले हमारे थारु जाटिक सर हुइट काहुन् ।’
बिरु एक चेप्टो डारु खोलल् । आघे ढैल खालि प्लेटमे नम्किनके पुरिया उल्डल । डाइ भिट्टरसे आलु भाँटक् टिना लान्डेलिस् ।

–लि लेखक डाडु, डानडान सट्काइ । अपने महगाँ डारु पिलक आज भर्जिन हुइलेसे फेन…।
ओकर बाट पुरा हुइनासे पहिले मै गिलास उठैलुँ ।

ओहोर डाइ बर्बराइ लग्लिस, ‘ऐसिन कहठुँ, घरहि आमिल ढामिल बना डेम । बजरहा डारु ना सोखिस । इहे ढंगे टे जन्नि छोर्लिस् ।’

बिरु डाइहे चुप चुप के सैलिमे मुँहेम चोर अंग्रि चप्ट्वाइल । मै ओकर डाइहे कलुँ, ‘बट्वाइ डाइ, बट्वाइ । अपने का कहटहि ?’

ओकर डाइ टेपरीकाटहस बोले लग्लिस्, ‘डुइ छावा हुइट हेरो भैया मोर । ६ छाइनके टे भोज वियाह कैके गइ सेक्लाँ । बर्का छावा कुछ लर्कापर्का सहिट औरे सिविरमे बैठठ् । यहाँ ओकर डुइ छावन् लग्गे स्कूल बा कैहके इहे बैठ्ठिस् । ओहे लर्कन्के कारन घर सुन नै लागठ । बुह्रैलेमे मंजुरि ढटौरि कैके लर्कन पह्राइटुँ । इ बिरुक् टे रिक्सा चलैलक् अपन डरुवै पिटि ठिक्के हुइठिस ।’

ओकर डाइ आपन भागल पटुहियक वारेम बट्वइहिस् कि कलक अगरम बगरम बट्वाइ लग्लिस् । बाटक लाइन पक्¥वाइक् लग मै कलुँ, ‘अपने पटुहियक बारेम बट्वाइक लग रहि काहुन ।’

–उहे टे कहटि बटुँ भैया । कमलह्रिया मुक्तिसे अइलक एकठो लवँरिया धनगढी बजारेम का का सिख्ना टालिम करे जाए काहुन् । इ बिरु लौँरा उहिहे रोज अपन रिक्सम् बैठाके टालिम हुइना ठाउँसम पुगा आए । मैँया फेन कट्रा हाली बझलक हो, डु अठ्वारके टालिम मजासे ओराइ नै पाइल रहिस । उ टे जाट्टिसे भगाके नै आनल काहुन् । (बिरु हल्का लजाइल) मुहँक बोख्लार रहे । मने काम भर उसारु रहिस । इ लौंराहे आब जन्नि आन सेक्ले । घरे समयमे आइस कलक ज्यौँ ज्यौँ राट आइ लागल । लौलिनके चाहना ठरवाहे उक्वार भेट लेके सुटम रवे कर्ठिन् काहुन (अप्कि ओकर डाइ बट्वइटि बट्वइटि लजैलिस्) ।

आब बोल्ना पाला बिरु लेहल, ‘हेरि लेखक डाडु । भोजक् बाड आब घर कसिक चलैना ? इ टे मोर फेन चिन्टक विसय हो गैल रहे । ओहेसे मै टनिक राटसम रिक्सा हाँके लग्लुँ । राटके रिक्सा चौहु्रइयन रोका रोका डारु पिइट । मै सोचु डिनभर घामेम् रिक्सम चलाइलसे बडला जब ग्राहकहे अस्याके ओकर डबल टिबल हुइठ कलेसे काजे नै कैना ? रिक्सह्वा मन्के अस्रा लगाके डारु पिउइयन फेन सोग लागिन् काहुन् एक डुइ पाउ पिवा डिंट ।’

महि बुझ्ना कर्रा नै परल कि नागिन हस फुफकार मरुइया बिरुक् भूपू जन्नि फूलरानी रहिस । बल्ले पटा चलल कि बिरुक रिक्सा कैहके इ सहरमे काजे नामि बा । बिरु आब पहिलकले आउर जोर काजे पिनाहा हो गैल बा ?

आब बोल्ना पाला ओकर डाइ लेलिस । मानो कि सल्लाह करल अस बाटक् ओंरि डरटि बटाँ । ‘बिहानि बिहानि ठरवा मेहरवन्के रोज झगडा । पटुहिया कहे डोसर मेहारु टेक्ले बा काहुन् । अट्रा राट राट आइठ । छावा कहे अरि टोरे लग टे राट सम रिक्सा चलैठुँ । टैं बाट टे बुझ । इ घेंचम गहना गुरिया, किरिम पाउडर, लालि गालि नै टे कसिक लगैबे ? घरेम चुल्हा कसिक बरि ? पटुहिया चिल्लाए मै सब बुझले बटुँ । के जाने कौन होटलिन्याहे छोटकि मेहारु बनैले बा । ओहे डारु ढोकाके पठैठिस् ।’

ओकर डाइ सुस्कर्टि कहटि गैलिसः

छावा सफाइ डेहे गौ किरिया फुलरानी टोर कसम । टुहि बाहके मै आउर जन्निन् ओर आँखि उठाके नै हेर्ठु । (मै जन्लुँ बिरुक जन्निक् नाउँ फुलरानी रहिस) उ टे रिक्सम सौंरना ग्राहक लोग कबु काल्ह सेट्टिम् पिवा डेठाँ । असिक छावा पटुहियन्के झग्रम महि पर्नास नै लागे । डुनहुनके बाट ठिके लागे । छाव राट आए टे का घरक खर्चा, जन्निक लुग्रा लट्टा सब पुगैले रहे । एक रोज पटुहिया बजार सौडा करे गैल । राटभर नै आइल । हमरिहिन बहुट छटपटि हुइल । डोसर बिहान आइल टे छावा पटुहियनके जमके लडाइ हुइलिन् ।

बिरु डँहरल, ‘लडाइ कैसे नै हुइ हजुर । डाइहे टक नै बटैले रहे कि मै राट नै अइम् । कहाँ गैल रहिस् ? पुँबेर उहो मजासे नै बट्वाइठो । उल्टे कहटा टै रोज अटरा राट अइठे, बन्जाइठ । मै एक राट नै अइलुँ टे पहाड गिर गैल ? सोझे कैहडेहट, संघरियक घर रहुँ । जबर्जस्टि रोक्लेलि । गल्टि हो गैल माफ कै डेउ । उ टे जे चोर ओकर बरा स्वर पो मँचाइ लागल ।’

मै पुछलुँ, ‘उ डिनके बाट कसिक निंग्टल बिरु ?’

–बाटे किल का निंग्टि लेखक डाडु । सम्बन्ढ जो निंगट गैल जे । (उ गिलासके बाँकि डारु स्वाट पारल । एकघरिक खोंखल । ओ मुँह आमिल बनैटि भर्भराइ लागल) मै पुछलु टै महि डोसर जन्नि टेकल आरोप लगैठे । कि टै ससरि डोसर भटार टेक्ले बटे ?

उ टे उल्टे बाझठ । हाँ हाँ टेक्ले बटुँ । ले का कै डेबे ? जव पानि घेंचासम पुग्जाइ टब का कर्बि हजुर । मै फेन हाँठ टिनटिनवइटि निकार डेलुँ । जा टोर लाग इ झोप्रिक डुह्रि सडा डिनके लग बन्ड हो गैल कैहके ।

डाइ बोले लग्लिस, ‘छावा टे हाँठ पकरलके निकार डेहल । ओ आपन रिक्सा डो¥याइल, बजार चलगैल । मै बरे बेरसम पटुहियाहे सम्झैैलु । मने पटुहिया अक्को नै सम्झल । उ टे असिन रिक्सह्वा ठरुवाले हाकिम ठरुवा पा लेम । इहे किल घर नै हो कहल । मै फेन कट्रा सम्झैना हो ?
मै सुझाव डेलुँ, ‘लैहर कहाँ हुइस ? बलाके लै अन्लेसे हो जाइ जे ।’

डाइ टरे मुन्टि कैले कलिस, ‘लैहर रहट ट टे बलाके लै अन्ने रहे जे भइया । सुन्ठुँ, इहे बजारेम रन्डि बनल बा हुन् । हेगुइयासे डेखुइयक लाज । उ पहिले हमार पटुहिया रहे कना फेन लाज लागठ आब टे । (डाइक बाटले बिरु लाल काइल हो गैल रहे ।)

बाट क्लाइमेक्समे पुग गैल ओर्से महि उहाँ आब एक मिनेट फेन बैठनास् मन नै लागल । घरि हेर्लु, राटके ग्यारा बजल रहे । बिरुहे कलुँ, ‘चल बिरु, महि होटल छोरडे । बेन मोरे सँगे सुटिस । मोर कोठम एकठो बेड खालि बा ।’

उ चुटपुट उठल ओ रिक्सा घुमाइ लागल । ओकर डाइ विडाइमे कुछ नै बोल्लिस । जब क्याम्पस रोड चौराहा पुग्ल टे बिरु अन्खोहर प्रस्टाव ढारल । सायड उ डारुक नसामे रहे । ‘लेखक डाडु कि चल्ना हो, साट आसमान पार । इ सहर टे डुर्गन्डिट हो राखल । मने उहाँ पुग्बि टे सुगन्ढे सुगन्ढ भेटैबि । एकसे एक अप्सरा परिलोग ।’

मै मुस्कुरैटि कहलुँ, ‘चल् जहाँ जहाँ घुमैना बा घुमा । टोर सहर फेन याडगार रहे ।’

उ घुमाहुर गल्लि, खल्टा खुल्टि परल, गे्रभलिंग रोड खै कहाँ कहाँ घुमाइल । बाहेरसे झोंपरपट्टि भिट्टर ठिकेठिके होटलके आगे कलवेल बजाइल । सायड सहुन्या रहे । आँख मिस्टि डवार खोलल । बिरु फुस्फुसाइल, ‘बहुट मालडार ग्राहक नन्ले बटुँ हजुर ।’

सहुन्या कहल, ‘बैठक कोठम जा । लवन्डिन सुटल नै हुइँट । टिभि हेर्टि बटाँ । कौन मन पर्ठिन टोर ग्राहकहे ।’

बैठक कोठाम गैलि । लालि गालि लगैले बठिन्यन हाहा हिहि कर्टि टिभि हेर्टि रहिंट । हम्रे पुग्लि टे टिभिक् आवाज कम हुइल ।

उहे बगालमेसे एकठो बठिन्या नागिनहस फुफकार मारल, ‘ए अपने हुम्के नै सेक्ले । आव आ पुग्ले राट बिराट डलाल बनके ग्राहक लेले ।’

मै चकरभंग हो गैलुँ । बिरु टुरुन्टे मोर हाँठ टिन्टिन्वइटि बाहेर निकारल ओ कहल, ‘चलि लेखकजि औरे ठाउँ । यहाँ मजा लँवरियन् नै हुइट ।’

महि बुझ्ना कर्रा नै परल कि नागिन हस फुफकार मरुइया बिरुक् भूपू जन्नि फूलरानी रहिस । बल्ले पटा चलल कि बिरुक रिक्सा कैहके इ सहरमे काजे नामि बा । बिरु आब पहिलकले आउर जोर काजे पिनाहा हो गैल बा ?

(खिस्साकारके टिप्पनिः यि काल्पनिक बटकुहि हो । केक्रो जिन्गिम मेल खाइ कलेसे केवल संजोग हुइ ।)

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