‘करोट’ नाटक हेर्लक अनुभव

एका बिहाने मोबाइलके घण्टी बोजल ।
‘मर्निङ सर’ आज शनिच्चरके प्लानिङ कुछ बा की ?’
चुडामणि जी के स्वर मोर कान भिटर पैठल ।
सिरक भिटरेसे कोल्टे फरटी मै कनु, “मर्निङ’ नाटक हेरे जैबी ? सर्वनाम थिएटरमे ?’
“कौन नाटक मञ्चन हुइटी रहल बा टे ?’
उहोरसे जवाफ आइल ।
“थारू भाषाके ‘करोट’ फूर्सद हुइटे जाई । एक बजे के शो हेरे ।“ –मै प्रस्ताव रख्नु ।
“टबटे कहाँ भेटी हम्रे ? “ संघरीया नाटक हेर्ना सहमति जनैलै ।
“बरघर रेष्टुरेन्ट किर्तिपुर –हमारे जक्सनमे ।’ मै ठाउँ बैटैनु ।
पौष ७ गते टियु क्रिकेट मैदानमे “इपिएल“के फाईनल म्याच नइहेरके हमार प्लान नाटक हेर्ना फिक्स हुइल ।
सार्वजनिक बिदा हुके हुई आघेपाछे मुस्किलसे आधा घण्टा ट्राफिक जामके डगर, उ दिन १५ मिनेटमे सररर् हुइँकटी हम्रे कालिका स्थानके सर्वनाम थिएटरके आँङगनामे पुग्ली ।
“एक घण्टा हाली पुगगिली ।“ सुनसान आँङगनामे घडी हेरटी संघरीया सुस्टैलै ।
“घाम तापी ।“मै कहनु ।
पुस महिनामे समय कटैना सबसे सहजुल काम यिहे हो । शो शुरू हुइना बेलासम आक्कलझुक्कल दर्शक डेख्लै ।
“साङितिक कार्यक्रम हुइलेसे टे मनै जोरसे अइठै ।’ संघरीया अपनही–अपनही बोल्नै । रङमञ्च प्रति आम दर्शकहुकनके मानसिकताहे जोरसे व्यङग््य करलै ।
स्कुलके घण्टी बजल जस्टे शो शुरू हुइल जनाउ घण्टी बजल । अँन्धार हलके पहिल लहरमे हम्रे बैठली । मधुरो प्रकाशमे एक निम्न वर्गीय परिवारके कथा शुरू हुईठ । सगोलमे बैठटी करल दुई डाडु भैया बीचके सुमधुर सम्बन्ध उ बेला गिलरल गैल विल्गाइठ जब छोटकी बहुरिया सोनके तिल्हरी भेटैठी । लोभसे मनमे डेरा जमासेकलपाछे नाटकके मूख्य पात्र सुकरामके भुख निन्ड हेराइठ । उहे लोभसे डाडु भैया बीचके सम्बन्ध अन्ततः अंशबन्डा हुईल । तीन कोठे मौलिक माटीक घरेम लौवा ढोका ठपठ । एक्के घरहे बीचसे बारके दुईठो बनाजाइठ । बिमार डाइक वचनहे लत्यइटी सुकराम सोन बेच्न नेंग्ठै । सुकरामके एकलकाटें चरित्रसे अन्ततः अपने गोसिया ओ सुन्दर संसारसे अलग हुई परल दृश्य विल्गाइड ।
“धन डेख्के महादेवके फे टिसरा आँखी खुलठ ।’
धार्मिक कथन सुनगिल रहे ।
कलियुगके मनैनमे यैसिन आँखी खोल्न नाटकसे भरपुर प्रयास करल विल्गाइठ ।
करिब एक घण्टाके नाटक कथामे “करोट’ (कोल्टे फेर्नु) फेरल । और दर्शकहुक्रे करौट लेलै की नइलेलै पत्ता नइहुइल । चुडामणि ओ मै करौट (कोल्टे) भर थामि नइसेक्ना कैकै फेरली ।
सुताईके करोट (कोल्टे) नाही, बसाईके करौट (कोल्टे) ।
हाँसी थाम्न नइसेक्ना करके हलके भित्ताओर लौटके कोल्टे । हुइल बा का कलेसे– नाटकके मध्यान्तरओर खाना खाईबेर रिससे सुकराम अपने गोसिनीयाहे अपन भाषामे – “खाई म्वाँर… खाई ’ कहटी भान्सासे निकरठै । थारू गाउँघरमे अभ्यस्त उ वाक्यसे हम्रे दुई जनहनहे खिट्खिट्यइना शुरू करल । ओकरपाछे खै का सम्झके हो’ हाँसीहे घाँटीभिटर कोचे नइसेक्ना । एक दुसरहे हेरे नइसेक्ना, हाँसीक खुखु… शूरू । पपकर्न खाँके निकरना आवाजसे समेत डिस्टर्ब हुइना नाटकघरमे खुलके हाँसे नइपरल । सार्है हुइलपाछे मै एक भित्ताओर लौटनु । संघरीया दुसर ओर । मन टे रहे नि ! पतञ्जली योगमे कहल जस्टे दिल खोलके हास्न । मने का कैना हिन्दी सलिमा ‘वेलकम’ के नाना पाटेकर जस्टे ‘कन्ट्रोल… कन्ट्रोल’ सम्झँटी पूरा नाटक हेरगिल ।
समग्रमे प्रणव जी, इन्द्र जी लगायत सक्कु नाटक परिवारहे ढेर–ढेर शुभकामना ।
लेखक यी अनुभव पहुरा डटकममे प्रणव जी के ‘नाटक करोटक साक्षिपात्र’ लेख यिहे फागुन १३ गते प्रकाशित हुइलपाछे लिखल रहिट ।
