थारु समाज चिटैना मोका– गयर्वा बुडु

पुसके पहिल साता, ठुल्क कुहिरा ओ जार ओस्टे रहे । कृष्ण सर्वहारी कलिङ कटी मोबाईलके घन्टी बोलेबर मै चिया पियटहुँ । कृष्ण सर्वहारी कोहलपुर आइल रहिट । कहाँ बाटी अप्नेहे भेटे आुइटु ? सर्वहारी कोहलपुर रहिट । यु आर हर्टली वेलकम सर्वहारी जि ! मै खुशी हुइटी फोन ढरनु । कुछबेरमे आपुग्नै सर्वहारी जि, साथमे रहिट औरे एकजाने युवक फेन । हम्रे परिचय करली एक आपसमे । मै सागर गैरे, मै शेखर दहित उहाँ कलैं । हम्रे सँगसँगे बैठ्के चिया पिली ओ बरबेर बाटचित करली । छुट्टेबेर दुनु जहनहे एक एक ठो ‘लकडाउन’ पुस्तक डेले रहुँ ।
झन्डे एक महिना पाछे ओहे शेखर दहितसँग फेन भेट हुइल मोर पसलमे । उहाँ शुरुमे ‘लकडाउन’के लेखनीके बारेमे बाट निकरलैं । हम्रे थारु साहित्यके बारेमे फेन बाटचिट करली । चिया पिली ओ छुट्ली ।
तेसर भेटमे उहाँ अपने थारु भाषामे लिखल ‘गयर्वा बुडु’ कना कथा सँग्रह ओ थारु भाषाके साहित्यिक पत्रिका ‘लावा डगर’के चार ठो अंक नान्के छोरलैं । दुई तिनचोके भेटमे शेखरसँग बैठ्के एकाध घन्टाके समय बिटाइ सेक्ना संघरिया बनसेकल रहुँ मै । फेन कौनो दिन भेटघाट करना बाचाके साथ हम्रे छुट्ली । उहाँ बर्दियाओर अपन कर्मक्षेत्रओर लग्लैं मै भर उहाँक पुस्तकके पाना पल्टाइ लग्नु । आवरण चित्र महिन अपन बाल्यकाल ओर लौटैना प्रयाप्त रहे ।
पाल्पामे जन्मलेसे फेन मोर बाल्यकाल तराईके थारु बहुल बर्दियाके ककौरा गाँउमे बिटल । ककौरामे आइलपाछे थारु समुदायके लवण्डन मोर संघरिया बन्लैं । मै नैचाहके वा नैजानके फेन उहाँहुकनसे थारु भाषा सिख्नु । उहाँहुकनके घरमे पाकल चिजबिज खाके बह्रनु । उहाँहुकनके भाषा, रितिरिवाज, सँस्कृति, लवजसे छोटेसे प्रभावित हुइनु । जब मै कोहलपुर अइनुँ, यहाँ फेन जहाँटहाँ थारु गाउँ रहे । यहाँ फेन मोर साथिसँगी थारुहुक्रे रहैं । जब मै पत्रपत्रिकामे लिख्ना कर्म शुरु करनु, टबेसे मै थारु समुदायसँग जोरल अपन रुचि ओ ज्ञानहे अनेक लेखसे जाहेर करटीरहनु । गहिर लगाव ओ भावनात्मक सम्बन्ध बन्नाके पाछे यिहे बाल्यकालिन स्मृति काम करल टे हुइ ?
‘गयर्वा बुडु’ मोर निम्ति महत्वपूर्ण उपहार रहे । हातमे परलपाछे मै सरसरती हेरनु । शुद्व थारु भाषामे लिखल किताब रहे । मै बोल्ना ओ यी किताबमे प्रस्तुत थारु भाषामे ढेर फरक भेटैनु मै । नेपालके पूर्वसे लेके पश्चिमि सिमानासम थारु समुदायके बसोबास बा । नेपालके सवालमे बाट करलेसे चौठा ढेर बोल्ना भाषा हो थारु भाषा । मने पूर्वी नेपालमे बोल्ना थारु भाषा ओ सुदूरपश्चिममे बोल्ना भाषामे भौगोलिक ओ भाषिक प्रभावसे हुइ आकाश–जमिनके अन्तर बा । मै बैठल क्षेत्रमे दँगाली ओ देशौरी करके दुई भाषिका बोल्ना थारुहुकनके बाहुल्यता बा । हम्रे सामान्य उठबैठके संगतसे सिखल भाषामे टे दंगाली, देशौरी किल नैहुके हिन्दी भाषा समेत मिलल रहे । मै मिसमास थारु भाषा बोलु कना बाट यिहे पुस्तक पह्रलपाछे महसुस हुइल । मोर कैयौ पहाडी संघरियाहुकनके तुलनामे मै ढेर थारु भाषा बोल्ना ओ बुझे सेक्ठु कना घमण्ड मोरमे एकडम भर रहे । मोर धरातल कैसिन बा कना बाट ‘गयर्वा बुडु’ किताब छर्लंग्या डेहल ।
मने जैसिक मै ‘गयर्वा बुडु’ पह्रे बैठ्नुँ, महिन एकडम कठिन हुइल । नैठग्के कहुँ कलेसे शुरुमे टे मै पहिल प्याराग्राफ मजासे बुझे नैसेक्नु । एक्के वाक्यहे फेन दुई तीन चो दोहोर्या तेहर्या पह्रलपाछे किल मै पुस्तक भित्तरके खास गुरी महसुस करे सेक्नु । टब का हुइल कि मै रफ्तारमे पह्रके ओरवैनु । पुस्तक पह्रेबेर चलचित्रके दृष्य जस्टे गाउँबस्तिके अनेक दृष्य सम्झनामे अइना जैना क्रम चलल । पुस्तक पह्रके ओराइलपाछे फेन ओकर मट्टावन मनसे नैउत्रल । लेखक दहितहे बोलाके सँगे बैठ्के दुई–दुई चो चिया पिली ओ पुस्तक लेखन गर्भके बारेमे बाटचिट करली । घड्गरके हेरनु दहितहे, थारु समाज एक लेखक पैले बा । यी प्रतिभाहे हम्रे लम्मा यात्रा नेंग्ना प्रेरित करे परल ।
मै थारु समुदायमे नाम कमाइल संचारकर्मी तथा साहित्यकार कृष्ण सर्वहारीके थारु भाषाके फेसबूक स्टाटस हेरटी रठु । छबिलाल कोपिला, सुशील चौधरी तथा कृष्ण सर्वहारी लगायतके टोलि दंगाली भाषिकाहे थारु जातिके आधिकारिक ओ अर्गानिक भाषा कहल फेन पह्रले रहुँँ । ‘गयर्वा बुडु’ ओहे भाषिकामे लिखल कृति हो ।
‘गयर्वा बुडु’ मै एक्के दिनमे पह्रके ओरवैनु । हेरलेसे छोट ओ चट्ट परल बा किताब । जम्माजम्मी एक सय पेजके । आवरणमे चरटीरहल तीन चार ठो गाई ओ बछ्रुनके छाँही चित्र बा । ओइनके पाछे कन्धम् काठिक बोझा बोकल मनैयक चित्र बा । जे भेग्वा (लगौँटी) ओ कमिज लगैले बा । नांगा गोर हातमे कठुवक छडी ओ कपारमे गाउँ घरमे सियल कपरक टोपी बा । कन्धम् झोला भिरले बाटैं । एक गयर्वाक झलक डेना पुस्तकके बाहिरि आवरण शतप्रतिशत सफल बा । आवरण महिन एकफोले मोर बाल्यकालमे पुगाइल । ककौरा गाउँमे मै डेखल गैयनके लाइन सम्झनु । ओ ओइनके पाछे नेंगुइया गयर्वन सम्झनु । कृतिमे ८ ठो कथा समोटल बा । अन्तिममे लेखक अपन बाट लिखले बाटैं । पुस्तकके बारेमे प्रकाशकसे लेके थारु साहित्यके हस्तीसमके मन्तव्य ढरले बाटैं । पहिल चो २०७३ सालमे छापल यी पुस्तकहे जंग्रार साहित्यिक बखेरी प्रकाशन करले रहे । कृतिके मूल्य सय रुपियाँ ढरल बा ।
थारु भाषामे कथाहे खिस्सा या बट्कोही कहिजाइठ । लेखक सब कथा आत्मपरक शैलिमे लिख्ले बाटैं । यी कथाके परिवेश एक दुई दशक पहिलेक थारु गाउँके अवस्थाके हो । हरेक कथा तत्कालिन थारु गाउँ ओ उ बेलाके सामाजिक, आर्थिक ओ राजनीतिक परिवेशके जिवन्त चित्रण करना सफल डेखाइठ ।
उप्पर बटासेकल बा, संग्रहमे जम्माजम्मी आठठो कथा बा । शुरुके कथाके शीर्षक ‘छारा’ बा । छारा कथामे भेरीछोग्री चरुइा बालकहुकनके बाल्यस्मृति उघारल बा । टोलके लवण्डन अपन–अपन घरेक भेरीछेग्री चराइ वनवा जैठैं । संघरियनसँग दिनभर हाँसखेल उठबैठ हुइठ । कुछ संघरिया किल हृदयके लग्गे रठैं । ओइने अपन घरेसे नानल खैनाचिज बाँट्के खैठैं । ओहेमध्येके भुख्लिया एकदिन अपन बाबाडाइक सँग मालिकके सिरुवा छोरके अन्ते बसाई सरठ । ओकर सबसे मिल्ना संघरिया अपन संघरिया अपनहे छोरके जाइबेरके दृश्यसे मर्माहत हुइठैं लेखक । बाल्यकालके संघरियाहुक्रे जिन्दगिमे कत्रा महत्वपूर्ण रठैं कना बाट यी कथामे डेखाइल बा ।
औरे कथा बा सिरुवा । थारु समुदायमे जमिन्दार अपन यहाँ काम करना कृषि मजदुरके लाग बनाडेहल झोपरीहे सिरुवा कहिजाइठ । कृषि मजदुरहुक्रे अपनहे जहाँ काम करना हो, ओहे मालिकके खेतबारिमे बनाइल ओहे झोप्रीमे अपन काम करटसम अपन बसेरा बनैठैं । कमैया प्रथा थारु समुदाय बाहके औरे कौनो फेन समुदायमे नैडेखाइठ । नेपालके सन्दर्भमे कमैया प्रथा उन्मुलन हुसेकल बा । कौनो बेला तराई क्षेत्रमे अपरिहार्यता मानजाए यी प्रथाहे । यी कथा उबेलाके हो जब पश्चिम तराईमे कमैया प्रथा बिकराल रुपमे विद्यमान रहे । कमजोर आर्थिक धरातल रहल थारु समुदायके ठारु मनै वर्ष दिनके लाग निश्चित परिमाणमे धान, गोहुँ या अनाज पैना शर्तमे जमिन रहल घर काममे बैठिट । कुछ मालिकसँग लेहल ऋण (सौखी) तिरे नैसेक्के ओकरे भरपाई स्वरुप पुस्ता दरपुस्ता कमैया बैठे परल दारुणिक व्यथाहे यी कथा उठैले बा । कथाकार अइसिन कलंकित प्रथाके पर्दा चिरके समाजहे ओज्रार दिशामे आघे बह्राइपरठ कना चोटगर सन्देश डेले बाटैं ।
मै जानल कलेक जल, जमिन ओ जंगलसँग अपन सारा कर्महे जोरके अत्यन्त मिहिनेती, लगनशिल, ईमान्दार ओ सहयोगी जातिमे परठैं, थारु जात । उहाँहुक्रे अपनहे चहना नोन, फलाम ओ तेल बाहेक प्रायः सक्कु चिजबिज प्रकृतिसे जुटैटी आइल बाटैं । ओहे मध्येके एकचिज जोन हेरलेसे सामान्य डेखैलेसे फेन हरेक काममे अति महत्वपूर्ण मानजाइठ । बनकस जो पहाडमे किल पाजाइठ । थारुहुक्रे पुरै गाउँमे सल्लाह करके बन्दोबस्तीके सामान सहित पहाड जैना तयारी करठैं । खानपिनसे लेके ओह्रनाबिछैना समके बन्दोबस्तीके सामान जुटैना क्रमके थारु गाउँ एकडम गुल्जार ओ चलायमान डेखाइठ । छोट छोट लरका अपन–अपन बाबाहुकनहे टाटा, फलफुल, लाठी तथा बाँदरके बच्चा नान्डेना करल आग्रह, गाउँसे निक्रल लह्रियक लाइन हेरलेसे अलग्गे रौनक डेखाइठ । गाउँमे कत्रा ढेर उल्लास रहे कना महसुस करे सेकजाइठ । ‘बटिया’ कथामे पहाड गइल सबके बाबा लौटलेसे फेन एक बालक अपन बाबाहे नैडेख्ठैं । डेखेफेन कैसिक ओकर बाबा बनकस काटेबेर पहाडके गहिर खोल्हवामे गिरके मरजाइठ । बाबा नान्डेना उपहारके प्रतिक्षामे बैठल बालकके आकाँक्षा चकनाचुर हुइठिन, गोसियक प्रतीक्षामे बैठल गोसिनियक् भविष्य अन्धकार हुइठ । नियतिके कथा चुपचाप सहनाके विकल्प नैहो ।
औरे कथा बा ‘ठण्डिबरफ’ । आजकल सहरबजारमे अनेक स्वाद ओ आकारके आईस्क्रीम पाजाइठ । कौनोबेला बाँसके ड्डीमे गोझल बरफ लाख रहे बच्चाबच्चिके लाग । यी ओहे समयके कथा हो जोनबेला कठुवके डब्बामे बरफ ढरके लब्बरके पिंगरी दबाके भोँपु भोपुं आवाज निकरटी बरफ व्यापारीहुक्रे तराईके गाउँ गाउँ पुगल रहिट । लरकनके लाग बरफ एकडम महत्वपूर्ण चिज रहे । पैसा रहुइयन किनके खाइट नैरहुयन मसरी, गोहुँसँग साटके फेन बरफ खैना अपन रहर पूरा करिट । बक्सासे चुवल पानी हाठ्मे लेके हाठ चटसया कैयौं बच्चाहुक्रे । यी कथामे बाल्यकालिन रहर ओ प्यासहे सजिब तरिकासे खिट्कोरना सफल डेखैठै कथाकार ।
‘काला’ मतलब जादु । ‘काला’ कथामे बिगतमे भारतओरसे जादु डेखाइ, भालु नचाइ अथवा साप डेखाइ नेंगुइयाहुक्रे, सडकमे टमान पन्छिहुकनके अखोटोपहार तेलमे डुबाके जिउ मकल, पिराइल चोखैना कटी तेल बेचुइन, लह्रिया भर मिर्चा, आलु, टिना नान्के धानसँग साट्ना, टिकुलि, लाहाके चुरिया बेचुइयन गाउँ–गाउँ नेंगिट । थारु गाउँमे अपन जादु–चटक वा जनावरके अनेकन चर्तिकला देखाके वा अपन उत्पादन अनाजसँग साटके अपन आजिबिका चलुया सिमावर्ती भारतीय गाउँके मनैन दैनिकि मै फेन अपन बाह्रल गाउँमे डेख्ले बाटु । काला कथा पह्रेबेर मोर अपन अतित फेन ताजा बनके सम्झनामे आइल ।
‘डलडल’ कथामे राजदरबारमे हुइल हत्या, देशमे लागल संकटकाल ओ माओवादी जनयुद्वसे थारु समुदायमे परल छिटा किलोरले बाटैं कथाकार । जिन्दगिके यात्रा अनिश्चयसे घेरल रहठ । बेपत्ता पारल रध्वा काकुक जियल या मरल कौनो खबर नैपाजाइठ । उहाँ मरल कुछ वर्षपाछे उहाँक गोसिनिया फेन यी संसार छोरठिन् । उपाछे उहाँहुकनके सन्तान टुवर हुइठैं ।
‘गयर्वा बुडु’ यी संग्रहके आवरण कथा हो । थारु जातिमे छेग्री चरुइयाहे छेग्रहवा, भैंस चरुइयाहे भैंसरवा, लह्रिया हकुइयाहे लह्रियावान कहे जस्टे गैयागोरु चरुइया मनैन्हे गैयर्वा कहिजाइठ । कुछ दशक आघेसम थारु समुदायमे भारी संख्यामे गैयागोरु पल्ना चलन रहे । गैयागोरु पल्नाके पाछेक एक कारण खेतबारिके लाग मल ओ जोटेक लाग बहरके उत्पादन रहे । पशुपालनके सम्बन्ध कृषिपेशासँग जोरल रहे । कृषि भोकसँग जोरल अनिवार्य कर्म रहे । टबेमारे गाईपालन उबेलाके सामाजिक आवस्यकता रहे । गैयागोरुके व्यवस्थापन ओ ओकर रेखदेखके लाग गयर्वाहुकनके व्यवस्थापन करले रहे थारु समाज । निश्चित ज्यालादारिमे घर बाहेरके गैयागोरु फेन चराडिट गयर्वाहुक्रे । उहाँहुकनके जिन्दगिमे क्रमभंगता वा छुट्टी कना नैरहे । चाहे बर्खा रहे या हावा हुरि चले । गर्मी रहे या ठन्डी काहे नारहे । दैनिक रुपमे गैयनके लेहरा खेड्टी बनुवा जाइक परे । बिना गुनासो उहाँहुक्रे एकडम अपन काममे जोटलकरिट । उहाँसे सुनाइल घतलग्टिक कथा सुनके छोटछोट गयर्वाहुक्रे छक्क परठैं । रातदिनके कामके सक्रियता, बुढ्यौलिओर ढरकल जिन्दगी, एकदिन सपुवा काटके गयर्वा बुडुक देहान्त हुइठ । नैमजा लागठ महिन, पह्रटी पह्रटी आँखीसे आँस गिरल फेन पटा नैपैनु ।
‘डलडल’ कथामे राजदरबारमे हुइल हत्या, देशमे लागल संकटकाल ओ माओवादी जनयुद्वसे थारु समुदायमे परल छिटा किलोरले बाटैं कथाकार । जिन्दगिके यात्रा अनिश्चयसे घेरल रहठ । बेपत्ता पारल रध्वा काकुक जियल या मरल कौनो खबर नैपाजाइठ । उहाँ मरल कुछ वर्षपाछे उहाँक गोसिनिया फेन यी संसार छोरठिन् । उपाछे उहाँहुकनके सन्तान टुवर हुइठैं । ओहे मध्येके परसड्वा भारत पुगठ ओ टमान वर्षपाछे लौटठ । भारतसे लौटलबाद ओकर गोझु भरल रठिस । उ अपन बाल्यकालिन संघरियाहुकनहे भट्टिमे लैजाइठ ओ डट्के पिवाके अपन धाक ओ प्रभाव डेखाइठ । नेपालके दुरदराजमे अनेक जाति समुदायमे अनेकन प्रसड्वाहुक्रे बाटैं जो जिन्दगीमे अपन अस्तिव खोजटैं ।
कथाके हरेक पात्रके जिजिबिषासे मै मर्माहत हुइठु । ‘म्वर भाग’ नेपाली समाजमे वैदेशिक रोजगारिसे जन्माइल साईड ईफेक्टके आवर्तन अथवा ऐना हो । हजारौ युवाहुक्रे सुखी जिन्दगिके सपना बोकके दैनिक उरटैं देशके भुगोल छोरके । जिवनके अनेकन सपना विदेशके कठिन ओ जटिल काममे शिथिल हुइटी जैठैं । सबके सपना साकार नैहुइठ कना नैहो । कुछ अपन सपना भेटैलेसे फेन टमान जाने जिन्दगी से मिच्छैठैं । ‘डलडल’ के पात्र विदेशसे घर लौटल उहाँहुकनसँग ना अपन कमाइल कमाही रकठ ना टे गोसिनिया घरे रठिन ।
‘बाबक चिट्ठी’ डगर भुलाइल एक विद्यार्थीके कथा बोक्ले बा । गाउँके अनपढ ओ सोझ दम्पत्ति अपन छावाक पह्राइमे अपन सपना सजैठैं । ओइने खानैखा करके जोगाइल पैसा सहर पठैठैं । शुरुमे मजा सम्भावना डेखाइल छावा पाछेक दिनमे सहरके रसातलमे भासल बाट ओइने पटा पैठैं । छावा जत्रा पैसा मागठ ओइने घरमे रहल अन्नपात ओ पाछे जाके अपने बैठल जमिन समेत बेचके पैसा पठैठैं ओ अन्तिममे बाबा छावाहे सम्बोधन करके आब अपनसँग पठाइक लाग फुटल कौरी समेत नैरेहल पीडा जनैना पत्र पठैठैं । पह्राईलिखाईमे अत्रा खर्चहा रहन बाट पहिले पटा रहट कलेसे सायद छावाहे पह्रे नैपठैटी । टोहार पह्राइहे बिचमे अलपत्र पारलमे अपनहे माफी डेना आग्रह करल बाबाक चिट्ठी मार्मिक बा ।
पुस्तकके अन्तिम लेख लेखकके परिचय सहित ओराइल बा । नितान्त लावा ओ मिठ शैलीमे लिखल गयर्वा बुडु थारु समाजहे चिठैना साहित्यिक मोका मन्लेसे अतिशयोक्ती नैहुइ जस्टे लागठ । थारु समाजके मिहिन परम्परा, सामाजिक अवस्था, रितिरिवाज ओ अन्धविश्वासहे जत्रा सरल ढंगसे उठाइल बा उहिनसे कम बडलटी परिवेश ओन राष्ट्रिय अन्तर्रास्ट्रिय घटनासे नानल परिवर्तनसे थारु गाउँ फेन अछुत बैठल नैहो कना शक्तिशाली सन्देश डेना फेन कथाकार सफल बाटैं ।
शेखर दहित नेपाली साहित्यमे अथाह सम्भावनाहरु लेके आइल बाटैं । उहाँक पहिल कृति ‘गयर्वा बुडु’ के महत्व यीकारण फेन विशिस्ट रही कि अत्रा शक्तिशाली साहित्यिक कृति यी आघे थारु साहित्यमे लिखल रहे कना बाट कमसेकम महिन पटा नैहो ।
‘गयर्वा बुडु’ नैपह्रना कलेक थारु समाजके एक कालखण्ड पह्रे छुटैना हो । काल्हेक दिनमे महेशविक्रम शाह, रामलाल जोशीहुक्रे थारुके कथा लिख्लैं । उ कथा गैरथारु समुदायके कलमसे लिखल रहे । थारु समाजहे थारु नजरसे अर्गानिक स्वादमे हेरेक लाग टे शेखर दहिते चाहठैं । कमसेकम महिन टे ओस्टे लागठ । टबेमारे फेन यी कृति सबके लाग पठनिय बा । ‘गयर्वा बुडु’ नेपाली ओ अँग्रेजी भाषामे फेन अनुदित होए । मै लेखक शेखर दहितहे बधाई डेम अत्रा मिठ कृति तयार पारल ओरसे ओ शुभकामना फे डेम अइना दिनमे यिहिनसे फेन और मजा ओ परिस्कृत कृति परोसे सेकिट । हार्दिक हार्दिक शुभकामना बा, शेखर जि ।
