थारु राष्ट्रिय दैनिक
भाषा, संस्कृति ओ समाचारमूलक पत्रिका
[ थारु सम्बत २७ असार २६४९, शुक्कर ]
[ वि.सं २७ असार २०८२, शुक्रबार ]
[ 11 Jul 2025, Friday ]

खेटुवामे गुन्जे छोरल सजना

पहुरा | २६ असार २०८२, बिहीबार
खेटुवामे गुन्जे छोरल सजना

थारू कृषि लोकगीतमे द्वापर युगके श्रीकृष्ण ओ महाभारतकालीन गाथा समाहित हुइनाले थारू समुदायमे प्राचीन कृषि प्रणालीके झझल्को विल्गाइठ । रोपाइँके बेला घामपानीसे जोग्न छटरी (डन्डी नैरहल परम्परागत छटरी) टरे बैके धानके बेर्ना उखर्ना मचिया, खटोली, धान ढर्ना माटीक डेहरी, कुठला, कुठली हिलाामे लगाके नेंग्ना खराउ, धान बोक्न सिक्हर बहिङ्गा, सामान ओसार्न लह्रिया, खेटुवामे खाना पुगाई जाईबेर प्रयोग हुइना सामग्री ढकिया, डेलवा, बिँडा, सिरहट्टा, पानी पिना करवा, जाँड पिना करै, बैठक लाग बेर्री जैसिन सामग्री अपनही बनैठै, थारू किसान । मुसनसे अन्न जोगैना कठुवक ओड्रा थारू बस्तीमे अभिनफे हेरे सेक्जाइठ ।

गीत गैटी खेतीपाती करलेसे श्रमिकके थकान मेटठ, एक प्रकारके उत्साह जागठ । टबमारे कृषि पेसा अपनाइल प्रायः आदिवासी जनजातिमे कृषिसम्बन्धी गीत फेला परठ । थारू लोकजीवनमे सजना, मैना, होरी, अस्टिम्की, सख्या, सुर्खेल, ढमार, मघौटा, बरमासा, रतनचवा, दिननचवा, बिरहैन जैसिन लोकगीत बटै । प्रायः यी सक्कु गीतमे खेतीपातीके प्रसङ्ग प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूपसे जोरजाइठ । यी आलेखमे पश्चिमा थारू समुदायमे कृषिसम्बन्धी सजनालगायत अन्य लोकगीतबारे चर्चा करल बा । खेतीपातीके बेला सजना गीत गाजाइठ । यम्ने खेती प्रणाली, सिकारी संस्कार, पौराणिक पात्रके गाथालगायत प्रसंग समेटल रहठ ।

समयमे पानी नैपरलेसे गइया/गोरु बेंढ्ना संस्कृति अन्तर्गत सजना गैटी पानी पर्ना अनुरोध करजाइठ । गइया/गोरु बेंढ्ना कहल गैयागोरुहे बन्धक बनैना हो । पाँच पाण्डव राजा विराट्कहाँ गुप्तवास बैठेबेर ओइनके १२ बर्से वनवासके ध्यान भङ्ग कैना कौरव पक्षसे राजा विराट्के गैयागोरु बन्धक बनाइल रहे । उ गैयागोरु छुटैना अर्जुन महिलाके भेषमे गैल महाभारतमे मिथक बा । यैसिक गइया/गोरु बेंढ्ना संस्कृतिमे लउण्डीहुक्रे लउण्डाके पोसाक लगाके गाउँ गाउँ छाता ओढके गीत गैटी, टिना मग्टी नेंग्ठै । महाभारतके प्रसङ्गफे सजनामे आइठ । ब्याड छिटेबेर पानी नैजुरके प्रायः वैशाखके अन्त्यओर गोरु बेंढ्न चलन बा । गैयाहे बन्धन बनैना जैना बेला ओइने सजना गैठैः

उटरे डखिने चुरवा चम्के रे, कि बिजलि टाेँरगन
काटि ढर्बु रैनि मछरिया कि मेघवा बाबा पानि डेउ ।

उत्तर दक्षिण बिजुली चम्कल, चुरियाफे चम्कल । बरु रैनी मच्छी काटके चढैम, मेघवा बाबा (भ्यागुता) पानी पारडेउ । गोरु बेंढुइया गैयासंगे, मेघवा बाबाहेफे बन्दी बनैठै ओ भोजन करैठै । सजना गैटी गाउँबाहेर निकरठै–

चारु कोना कलस ढरैबुँ रे कि कलसा मैँ छुआइटुँ
हाँठ जोरि बिन्टि सुरुजा डेउटा कि मै बर्खा मनाइटुँ
पच्छिवैसे उमरल कार रि बडरिया रे,
एक बुन्डा पनिया गिराइडेउ मोर हिरना भिजाइडेउ

अर्थात् चारु कोनुवा कलश धारे लगैना, कलश मै छुवैबु, ए सूर्य देउता, टोहानसँग कर जोर बिन्ती करटि बर्सातके लाग आह्वान करटु । पश्चिमसे करिया बद्रि आइल मने पूर्व भागल । एक बुँद टे पानी परडेउ, मोर हिरना (धर्ती) भिजाइदेऊ । आश्चर्यके बाट का बा कलेस जोन दिन जोन गाउँठाउँमे गोरु बेंढना रित पूरा करजाइठ, उ दिन संयोगसे उ वरपर पानी परल रहठ ।

रोपाइँके समय प्रायः जेठसे सावनसम होे । टबेमारे सजना प्रायः जेठसे सावनसम गाजाइठ । जेठ लग्लेसे फेन पानी नैपरके किसानसे सजनाके राग छोरठैंः

हरे पुरुवसे उमरल कारि रि बडरिया रे, पछिउ चलि जावै,
अरि परि गैला, जेठ–असरिया, पनिया नहि बरसल ।

अर्थात् पूर्वसे करिया बद्रि मडारल ओ पश्चिममे जाके हेराइल । जेठ, असार महिना लग्लेसेसमेत पानी नैपरल । ओहोर पानी नैपरके खेती करे नैपाके अपन अभिभावकहे दुःखी हुइल डेख्के उहाँक जवान छाइ फेन बिलौना करठि सजनामार्फत–

हरे गिउरक बिनल झलुरि छटरिया रे, उपरे पावोन डोलै
अरि छि छि बुन्डा पनिया न परल, मोर चुन्डरि नै भिजल ।

गैँरी (भँगेरासे बनाइल छटरी (गाउँसले छाता) उप्पर उप्पर हावा बहल । सामान्य एक बुँद पानीसम नैपरल, मोर चुनरी नैभिजल । जब पानी परठ, किसान खेतमे अइठैं । यहोर पुरुष नैरहल घरके महिला पानी परलेसे फेन खुसी नैरठैं ।

सावन सजनि बरसे झिन बुँडिया रे, टुटे बजरा केवरियाँ

अरे रानि भिजै रंगि रे महलिया, पिहा हो परुडेसे ।

खेतीपाती करना बेला जारसे सटाइल मौसममे श्रीमान् (राजा) सँगसँगे नैहुइल बेला कौन भर रानीके मन खुसी हुइ टे ? रंगीन महलमे भिजल ओकर अंगमे काँडा उम्रठ मने काँडा सम्यइना पति नैरहठ । यहोर भर्खर भर्खर नयाँ दुलही भित्राइल श्रीमान् खेतमे काम, घरके यादसे उहिनसे ढेर सताइल रहठ । सँगे काम करना गोचाली (साथी) उहिनहे सजनामार्फत गिज्याइठ–

खेट्वा टे जोटल मुरसुवा रे… कि कोडरा छनाछन
कब अइहि लौलि डुल्हनिया, कलवा पानि डेहे ।

अर्थात् मुरसुवा नामक व्यक्ति खेतमे दनादन कोद्रा खेलाइटा, उहिनहे भोक सटाइटिस । ओकर नयाँ दुलही कलवा (बिहानके खाना) डेहे कब आइ कपटा ? ओहोर नयाँ दुलही खाना पानी लेके खेत पुग्ठि ओ सजनामार्फत अइसिके उहाँक भाव व्यक्त हुइठ–

सिरे टे लेहल गगरिया रे, हाँठे र करुवा पानि
भुजवा टे लेहल कोछियाइ, चलल खेट पानि डेहे
ना मै डेखुँ रुख्वा, बरिख्वा, ना सिटल जुर छाँहि
घैला छलक चुन्डरि भिजे, कहाँ रे ढारु पैला ?

(कुशुम्हिया, २०५७ः १९)

शिरमे गग्री, हातमे करुवाक पानी, कम्मरमे भोजन लेके खेतमे जैटिरहल दुलही खेतमे ना रुख देख्ठि, ना कौनो शीतल स्थान । उहाँक घैला छल्कठ चुनरी भिजल रहठ । टबेमारे पुछ्ठी, ए स्वामी घैलाके पानी कहाँ ढरु हँ ? अइसिके किसान खेतीपातीके लाग जब खेतमे छिट्कठैं, सजना गीतके रागसे खेत गीतमय रहठ । विडम्बना यी झंकार आब सुस्ताइ लागल बा ।

खेतीपातीके लाग गाईगोरु अभिन्न वस्तु हो । सजनामे कान्हा अर्थात् कृष्णके फेन गाथा गाजाइठ । ओम्ने गाईगोरुके प्रसंग आइठ–

सुनो सुनो कृष्ण भाइ रे, टोर गौवा हेरानि
कहाँ अइलो मोरे डुवारे कि टोर रहिया भुलानि
ना मोरे गौवा हेरानि रे, ना मोरे रहिया भुलानि
कारि नाग फुला टुरबुँ, मामा रे पुजा करहिँ ।

नागिन पुछ्ठी, “ए कृष्ण, टोहान गैया हेराइल कि डगर भुलके यहोर आइल ।” कृष्ण कठैं, “ना मोर गैया हेराइल हो, ना टे डगर भुलाइल हो । ए नागिन टोहान रक्षा करल फूल मामाके पूजाके लाग टुरे आइल बटु ।”

अस्टिम्की गीतमे जैसिक कृष्णके बाबाहे हर बनैना सामग्री लेना वन पठैलैं, खेत जोटल प्रसंग बा, रटि रटि महादेव–पार्वतीहे फेन खेतीपाती करल प्रसंग थारू लोकसाहित्यमे नानल डेखाइठ, जेकर वर्णन सजनामे मिलठ–

गौरी टे गैनै जगाइ रे, उठो हो महाडेव
बसहा बरडा बेचि डारो, छिन भर सुटो ।
बेटुक डण्डा मारी जगैबुँ रे, उठो हो महादेव ।
टुहिन बिना हाँठ नहिँ पसरी, सुरुज नहिँ उघरी ।
सोइ कइ जागैं महादेव रे, हाँठ मुँह ढोवैं ।
नही बेचबुँ बसहर बरडा, कि छिनभर सुटबुँ ।

कुलप्रसाद थारू, (२०५७)

यहाँ निडाइल महादेवहे गौरी (पार्वती) कठि, “कत्रा सुत्बो ए महादेव, यहाँ ग्राहक आइल बटैं, बेसहा (गोरु) बेचो ओ फेन सुटो । नैउठ्बो कलेसे टे बेटके लट्ठीसे पिटके फेन जगइम । ओहोर अल्छी महादेव सुटके उठके हातमुख टे धोइठैं मने बेसहा गोरु नैबेच्ठैं कहिके फेन सुटेक लाग च्यादर टन्ठैं–

भोर भइल भिनसरिया रे, मुरगा बाग बोलैं ।
छोरो हो बरडिवा आपन बरडा, मैं पनघट जैबुँ ।।१।।
बरडा टे छोरल बरडिवा रे, खेटुवम पुगैलाँ ।
लेउ हो हरोहियो आपन बरडा, मैं घाट छेके जैबुँ ।।२।।

औरे गीतके प्रसंगमे एक गृहिणी बिहान हुइल, मुर्गासमेत बोलसेकल । टबेमारे आब टे गोरु छोरो कहिके अपन स्वामीहे गोठसे गोरु निकरना आग्रह करठि । उहाँ टे गोरु खेतमे पुगैना फेन सहयोग करटि कठि, लौ गोरु सम्हारो, मै टे पानी भरे पानीघाटओर लागटु ।

खेतीपाती प्रसंग जोरल विविध गीत थारू समुदायमे रहल बा । बिउ लगैना बेला छुट्टे बिया–बैठौनी गीत गाजाइठ ।

जेठमे जाब असारे नाइ आइब
सावन गुडिया खेलब नइहरवे ।
सावन जाब भादो रे नाइ आइब
भादोमे बरत भुखब नइहरवे ।

बमबहादुर थारू, रूपन्देही (२०७७)

यी गीतमे बाह्रैमासके वर्णन रहल बा । यहाँ एक चेली कठि, जेठमे जाब, असारमे नैअइम । सावनके गुडिया खेलम लैहरमे । सावनमे जाब, भदौके व्रत बैठम लैरहमे । भदौमे जाब, कुँवारके नैअइम । कात्तिकके दिया बारक लैहरमे । अगहनमे जाब, पुसमे नैअइम । माघमे त्रिवेणी लहाइम लैहरमे । माघमे जाब, फागुनके होली खेलम लैहरमे ।

धान लगाके, धान पनाके ओराइल खाली समयमे थारू महिला बलहा (पिङ) बनाके ‘सावन बलहा गीत’ फेन गैठैं । यी गीतमे सावन महिना सम्झटि लैहर (माइती) याद करठैं । भैया घोरवा लेके लेहे आइल कल्पना करठि । भैयाहे मिष्ठान्न भोजन डेठि । छावासहित भैयासँग लैहर जैठि–

उँचवे अमर चढी बैनी जे चितवे, बिरन सावन रे,
नैहरेक लोग नाही आवे, सावन रे सुहावन रे
पिसहु रे मैया बिरहन सतुववा, बिरन सावन रे,
हम जाब बहिनी बोलावे, सावन रे सुहावन रे
घोडवा बान्हहु भैया, ओही घोडसरिया, बिरन सावन रे,
बैठा भैया लाली पलङिया, सावन रे सुहावन रे ।

(सीताराम थारू, रूपन्देही)

खेतीपातीके बेला गैना सजना गीत थारू समुदायमे लोकप्रिय बा । विडम्बना मोबाइलमे गीत सुन्टि रमैना नयाँ पुस्ताहे अइसिन पौराणिक गीतमे रुचि, चास नैहो । नेपालमे कृषि प्रणाली जत्रा पुरान बा, ओत्रे पुरान सम्बन्ध थारूलगायत टमान समुदायके लोकगीतमे बा । विडम्बना हर ओ हरोइयाके ठाउँमे ट्याक्टर ओ ड्राइभर, धान लगैना मेसिनसे करना प्रविधि आके कृषि प्रणालीमे आधुनिकता छाइलसँगे कृषिसम्बन्धी लोकगीत लोप हुइना अवस्थामे पुगल बा । कुछ थारू गायक धान लगैना गीत रेकर्ड करे फेन लागल पाजाइठ । तथापि लोकसंस्कृति/गायन संस्कृतिहे जीवन्तता डेना, संरक्षण करना स्थानीय तह रोपाइँ गीत प्रतियोगिता आयोजना करना जरुरी डेखाइठ ।

साभारः गोरखापत्र दैनिकसे

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