थारु लोक सँस्कृतिके मननीय पक्ष

थारु लोकसँस्कृति यी पङ्क्तिकारहे अत्रा मोहनी काहे लगाइठ कि यी वाहेक और कुछ चिजके ख्याल नैआइठ ! हरपल यी सम्मोहित करटिरहठ । यी पङ्क्तिकारके घरके पुस्तकालयमे थारु कल्याण कारिणी केन्द्रीय सभाके प्रकाशन बा “थारु संस्कृति” ०६२ बैशाख अंक १८ जोनभित्तर, मुखीलाल चौधरी जीके एक लेख बा “थारुहरुले गर्नै पर्ने काम” टबेमारे लेखके प्रतिफल यी लेख परोस्ना सामाजामा हुइल बा । यद्यपि मुखीलाल जीसँग प्रत्यक्षरुपमे अपरिचित रहल बा यी पङ्क्तिकार ।
मुखीलाल धन्यवादके पात्र हुइट् किनकि उहाँ अपन लेखके माध्यमसे हरेक मेरिक सुधारके पहिल अभियन्ता युवाहुकनहे अभिप्रेरित करना प्रयास करले बटैं । उहाँ थारु युवाहुकनहे सामाजिक, साँस्कृतिक, आर्थिक क्षेत्रमे क्रान्ति कैके आमूल परिवर्तन नाने सेके परना, परिवर्तनके संवाहक बने सेके परना सन्देश डेले बटैं । जहाँक थारु हुके फेन हम्रे सब थारु हुइटि तसर्थ थारुहुकनहे क्षेत्रीयताके आधारमे उहाँहुकनहे पृथकताके विभाजनमे नैढरे परठ कना सन्देश डेले बटैं । सत्रे थारुहुक्रे एक मालामे गुथना भावनात्मक रुपमे जोरना सर्वोत्तम उपाय उहाँ सुझैले बटैं “वैवाहिक सम्बन्ध कायम करेपरठ ।” उहाँके शब्दमे “वैवाहिक सम्बन्ध सिर्फ एक व्यक्तिके औरे व्यक्तिसँगके सम्बन्ध किल नैहुके एक परिवारके औरे परिवारसँग, एक समाजके औरे समाजसँग, एक कुलके औरे कुलसँग सम्बन्ध स्थापित करना हो । अइसिक सम्बन्ध, स्नेह, श्रद्धा, प्रेम, ममता आदिके परिपथ कायम हुइठ मने थारु समाजमे वैवाहिक सम्बन्धके दायरा एकडम साकिर हुइल ओरसे थारुनमे जोन जातीय भावना ओ सौहार्दता हुइपरना रहे ओकर कमी महसुस करल बा । थारुहुकनके सामाजिक दायरा चाकल पर्ना, ठोस जातीय बन्धन एवं भावना मजबुत पर्ना ओ दरिलो भाइचारा कायम करना युवाहुक्रे ढेरसे ढेर अन्तर जिल्ला, अन्तरअञ्चल ओ अन्तर विकास क्षेत्रीय वैवाहिक सम्बन्ध कायम करना विशेष पहल करना ओ कराइ परठ (पृ.१४) ।
विवाहके विकृतिबारे उहाँ थप लिख्ठैं, “दहेज, तिलक, बिलौकी जैसिन अनेकौ कुप्रथा तथा सामाजिक कोढ आज ढिरेसे हमार समाजके ढोकामे दस्तक डेहटा । यिहिनहे समाजमे पेले नैडेहेक लाग युवाहुक्रे चनाख हुके जिम्मेवारीपूर्वक विशेष भूमिका निर्वाह करना कराइ परठ (पृ.१५) ।
मुखीलाल जीके उ लेख पह्रके यी पङ्क्तिकारहे डंगौरा थारु लोक साहित्य फूल्वारके सम्झना आइल । लटौ महादेव ओ प्रथम थारु गुर्वावाके छाइ गौरा पार्वतीके विवाह हुइ लागठ (Krauskaff Gesele 1989’50 Mayer/ Deual 1998:5) । विवाहके सक्कु रीति पुरा हुइटि रहठ । दुलहीहे विदाई करना अन्तिम घडीमे दुलहा ओ दुलही ओरके सब जाने एक ठाउँमे भेला हुइना बेला हुइल रहठ । विवाह समारोमे बैठना व्यवस्थापनके बारेमे गौरा पार्वती डाइ मैना रानी अपन कारिन्दाहुकनहे आदेश डेठि ।
हरे वाह्र पाछ विछैहीं री अररा ओ खररा, माझ ठाउँ विछैहो सटरङ गोन्डरी ।१८७।
हरे वाह्र पाछ वैठही कुल ट कविलवा, माझ ठाउँ वैठही डुनहु समढिया ।१८८।
अइसिक दुलहीके ओरसे दुलहाक बाबा–डाइ ओ बरटियनहे सम्भव हुइटसम मर्यादापूर्वक आसन प्रदान करल रहठ ।
हरे डाडु मोर डरहीं वछियक डान, डाडा मोर डरही वेटियक डान । १८६।
हरे कोही डेहल अंगुठी कोही डेहल मुँडरी, वरहुँ वरडिया डेहल ढेनु गाई ।१८९।
दुलही विदा हुइना सबके चरण छुटि, प्रणाम करटि जैठि । इष्टमित्रहुक्रे अपन–अपन गच्छे अनुसार गोझ्नौटी (दक्षिणा) ओ आशिष डेठैं ।
हरे गोझियासे काह्रल समढिन, साठी रुपिया, इह लेओ समढिन गनी गुनी लेओ ।१९२।
हरे निक निक डमवा समढी गाँठी बाँढी लेहल, घीन घीन डमवा समढी लेहल अलगा ।।१९३।।
हरे कि रुपैया खोट भैल, कि छेगरा छोट भैल, कि सोनवा खोट भैल कि चुनरी मलिन भैल ।१९४।
सम्धी जी ! हमार तफसे हुइपरना सत्कार, दान, सेवामे कुछ कमी रहल कि ! हमार डेकल रुप्याँ खोटा बा कि ? कि छेग्रिक सिकार नैपुगल ! कि सोनके गहनामे खोट बा ! कि कपडामे चित्त नैबुझल ! मर्जी होए । अपन छाइक खुसीके लाग हम्रे जा फेन करना तयार बटि ।
दुलही गौरा पार्वतीके डाइ–बाबा दुनु कर जोरके वडा करुणपूर्वक याचना करे लग्ठैं । अपन ससुरवा–ससुइयासे दानमे पाइल धन द्रव्यके लाग अपन डाइ–बाबाक अइसिन अपमान देखके दुलहीहे असह्य हुइठ । उहाँ सोचे लग्ठि, “यस् समाज द्रव्य पिचास हुइलसे कब मुक्त हुइ सेकि ? समाजके द्रव्य पिपासा कब तृप्त हुइ ? छाइक मूल्य धन द्रव्य जैसिन वस्तुसँग लगैना जस्टे अमानवीय विचार क्रियाकलापसे हमार समाज कब मुक्त हुइ ? दहेजके प्रचलन पुरुषके पुरुषत्वमे अप्नही प्रश्न चिन्ह नैहो का ?
दुलही छटपटैठि । उहाँक छटपटाहट सीमा नाघठ । तब उहाँ कठि–
हरे छेगरा मगाइ डेवँु, सोनवा टौलाई डेबुँ, रुपैया भँजाई डेबु, मोर बाबा छोर डेओ ।१९५।
हरे नाहीं बाबा डरहीं नाहीं डाइ डरहीं, डरही ट मनचिट डरहीं, टुहँन कन्याडान ।१९६।
हरे नाहीं डाडु डरहीं नाहीं भौजी डरहीं, डरहीं ट मनचिट डरहीं बछियक डान ।१९७।
कविलाहुक्रे ! यी काव्य गौरा पार्वती ओ लटौ महाडेवके कथा किल नैहो । विगत रहे वा वर्तमानः हरेक कन्याहुकनहे, कन्याहुकनके बाबा–डाइहे अइसिन अपमान, अइसिन भोगाइसे अद्यापी गुज्रे परटिरहल बा । मुखीलाल जी जैसिन लेखकसे सहअस्तित्व, सौहार्दता, सद्भाव, मातृत्व, दहेज वहिष्कारके विषयमे लिखटैं मने कत्रा पाठकहुक्रे अइसिन लेख पह्रठुहि ! पह्रके कत्राजे उहाँक मनोभाव आत्मसात करठुहि ! आत्मसात कैके कत्राजे व्यवहारमे लागु करल हुइहि ! कत्रा कन्याहुक्रे, कन्याहुकनके बाबा–डाइ, दादा–भौजीहुक्रे अपन छाती पिट्के रोइल हुइहि, “ओ मुखीलाल जी ! कत्रा सकुन मिलल रहे अप्नेक लेख पह्रके मने खै अप्नेक लेखके प्रभाव ? दहेजरुपी अजिंगर टे बर्सेनि मोटाइटै टे !” मध्यपश्चिम ओ सूदूरपश्चिमके थारु लोकमे विवहाके अवसरमे अद्यापि उ लोकगीत गैना प्रचलन आंशिक रुपमे कायम बा । अन्य क्षेत्रके थारुहुकनमे फेन अइसिन लोकगीत गायनके परम्परा बा । मने हम्रे थारुहुक्रे उ लोकगीत किल गाके एक परम्पराके निर्वाह किल करलि । उहिनसे न टे हम्रे कुछ शिक्षा ग्रहण करलि न टे नयाँ पुस्ताहे कुछ डेहे सेक्लि । लोक ज्ञानके पुस्तान्तरण रुकल ।
मुखीलाल जी अपन लेखमे लिख्ठैं, “थारु समाजमे अनेक सुधार ओ परिवर्तनके खाँचो बा । आब परिवर्तनके संवाहक युवाहुकनहे बने परि (पृ.१४) । जा होए साधुवाद बा मुखीलाल जी अप्नेहे ! अप्ने भावी दुलहाहुकनसँग, ससुरवनसँग, थाकस समक्ष अपन लेखके माध्यमसे कुछ प्रश्न सोझरले बटि –
१. गौरा पार्वतीके ठाउँमे (दुलहा) अप्नेक बहिनियाहे उ भोगाइ भोगे परट कलेसे उ बेला अप्नेहे कैसिन अनुभूति हुइ ?
२. गौरा पार्वतीके ठाउँमे (ससुरवा) अप्नेक छाइहे ओ गौरा पार्वतीके बाबा–डाइक ठाउँमे स्वयं अप्नेहे उ भोगाइ भोगे परट कलेसे उ बेला अप्नेहे कैसिन अनुभूती हुइ ?
३. ऐतिहासिकता बोकल थारु कल्याण कारिणी सभा थारु लोक सँस्कृतिभित्तरके अइसिन सवालहे अभियानके रुपमे लैजाइ सेकि कि नैसेकि ? नैसेकि कलेसे “कल्याण कारिणी” शब्द हटाके “थारु सभा” किल नामाकरण करलेसे कैसिन रहि ?
कविलाहुक्रे ! हरेक सवालके जबाव हरेकसँग मौजुद बा । बाँकी ईश्वर भरोसें । यदि ईश्वर बटैं कलेसे । नित्से टे पहिलहि कहि सेक्लैं, “ईश्वरके मृत्यु हुसेकल” कहिके । आगे राम जाने ।
सन्दर्भ स्रोत :
१. चौधरी, मुखीलाल (०६२) ‘थारुहरुले गर्नै पर्ने काम, थारु संस्कृति,’ अंक १८, थारु कल्याण कारिणी सभा, केन्द्रिय कार्य समिति, काठमाडौं ।
२. थारु, अशोक (०६३) थारु लोकसाहित्यमा इतिहास, कला र दर्शन, परिवर्तनका संवाहकहरको मञ्च, नेपाल ।
३. Krauskopff, Gesele/ Collaborator: Tharu, Ashok (1989) Maitres Et Possedess, CNRS, Paris
४. Mayer, Kurt / Deual, Pamela/Translator: Rai, Dinesh Chamling/Ghimire, Kalpana / Tharu, Ashok (1998) Barka Naach: A Rural Folk Art Version of Tharu Mahabharat, Himal Books, Patandhoka.
