थारु राष्ट्रिय दैनिक
भाषा, संस्कृति ओ समाचारमूलक पत्रिका
[ थारु सम्बत १४ बैशाख २६४९, अत्वार ]
[ वि.सं १४ बैशाख २०८२, आईतवार ]
[ 27 Apr 2025, Sunday ]

साहित्य

ऊ के रहे ?

ऊ के रहे ?

ओजरिया रात, सक्कु ओर ओजरार, डेवारीक समय, चक्ढौं चक्ढौं..मन्द्रक आवाजले मोर निंद नै परटहे । किहुसे बोलक बट्वाइक लाग टे सबजाने डेवारी मन्नम व्यस्त रहिँट । बाबा मट्वार होके सुटल रहे, डाडु भइवन अपन सँघरियनसँगे नाच हेरे गैल रहिँट । डाई मामन्
रिक्सह्वा बिरु

रिक्सह्वा बिरु

एकठो टालिमके सिलसिलामे धनगढी पुगल रहुँ । नाइट बसके याट्रा महि बिहान ९ बजे पुगैले रहे । लहा ढोके आराम करुँ कैहके सौंसटेल जिउहे बिस्टारामे ढल्कैक् डिनके २ बजे किल उठ्लुँ । डिनके गर्मि ओहे मेर रहे । बिना पंखा खोल्के सुटलमें पस्नाले
ठकौनी

ठकौनी

“आज त गोचालीक ठकौनी खाए आइट थाहा बात कि नाइ ?” “के कहल जे ?” आश्चर्य प्रकट कर्टि । “टुहार बाबा पटोइह्या खोजसेक्ल टुहार लाग । महि जिता खोज्ना जिम्मा देल बाट । आब मै जिता ख्वाज जाइटु । घुस्रा गाउँ टुहार डुम्चन्र्या दिदीकठे ।” “ठकौनी कलक
डाग लागल टन्ना

डाग लागल टन्ना

महिंहे हरडम मैंया कर्ना मोर जन्नि तिलरानी । ओकर उप्पर कौनो किसिमके संका टिल बराबर कैलेसे फेन पाप लग्ना अस । महा सुखि घरबार रहे हमार । जन्निसे सरसल्लाह कैके टब बल्ले कौनो काम सुरु कैना मोर बानि डेख्के मनैं महि जन्निसे हटल मनैंया कहिँट
गजलः दशैंके सम्झना

गजलः दशैंके सम्झना

सुनिल चाैधरी मन्ड्रा के ट्रासन संगे पुट्ठा के उल्रार,डउना बेब्री के महक,चॉंदनी के रूप पतली कमर तिर्छी नजर,मजीरा के छनक।। एैहो छैली ऊहे अगन्वा कटौती लेहेन्गा झोबन्दा झोटी मे,घुट्का संगे मेर्री बनैटी नच्बी व गैबी,कर्बी हमारे चमक ।।
बहादुरके देश

बहादुरके देश

वीर पुर्खनके देश,वीर गोर्खालिन्के देश,वीर विराङ्गानाके देश,जित बहादुर, मान बहादुर, कृष्ण बहादुर,वीर बहादुर, शेर बहादुर, राम बहादुर,लोक बहादुर, ठोक बहादुर सारा बहादुरके देशअत्रा धेर बहादुर रटि रटि फेनओह फे बहादुरके कमि हुइलसक लागठ,सक्कु
मेरो गाउँघरमा बोलाउँदैछन्

मेरो गाउँघरमा बोलाउँदैछन्

डौना बेबरीको बास्ना संगै खेतबारीमा धानको बाला झुल्दै छ त्यै धानको बालामा अमृतरस घुल्दै छ घर आँगनमा गेंदा टिउरा फुल्दै छ कता कता मेरो मन पनि डुल्दै छ कतै दशैं आयो कि घरमा कतै रौनक छायो कि शहरमा कतै दशैंको गीत गायो कि रहरमा अब म पनि आउँदैछु
अर्सीक घाना

अर्सीक घाना

मधु ओ सन्तुक जोरी डेखके मनै आजकाल्ह लल्चठैं । डाई–बाबा, एक छावा, एक छाई ओ अपने थर्वा ओ मेहरवा, जम्मा ६ जनहनके परिवार । एक जनहनके कानुमे छावा ओ एक जनहनके कानुमे छाई, खेलौनाहस् लोभलग्टिक लर्का । उ डगरा नेगेबेर मनै, ‘ऐया डाई, अतरा सुग्घुर
लौव दुल्हा

लौव दुल्हा

खन्टुराम बिहान्नी आफन डाईकठे गइल । बगालमसे छुटल भुलाइल चिङ्नी जसिक सुरक्षित स्थान खोज्ठ ओसहख खन्टुराम आफन घर गइल । खन्टुरामके डाई चुल्हाम टिनक अढन डोस्ल रलहिस् । आघक दिनठेसे हेराइल छावा टुप्लुक घरम देख्टिकी डाईह खुशी निहुइना
यस्तै यस्तै छ सरकार

यस्तै यस्तै छ सरकार

तिमी कराउ, चिल्लाउ वा रोउतिम्रो पुकार तिमी बाहेक अरु कसैले सुन्दैनतिम्रो दुःख पिडा तिमी बाहेक अरु कसैले बुझ्दैनतिम्रो मनभित्रको घाउको दुखाइ तिमी बाहेक अरु कसैलै देख्दैनन त सरकारले देख्छ, न त सुन्छ, न बुझ्छजसले देख्छ, सुन्छ, कुरा